कुछ यूँ आबोहवा जामाने का बदलने लगा हैं.
शोलों से नहीं शबनम से ही घर जलने लगा है.
आज बेआबरू होकर भटकती है इंसानियत,
आदमी खुदगर्जी के राहों पर यूँ चलने लगा है.
होंठों की सुंदर गलियों से गाएब है मुस्कराहट,
सुना है उदासिओं का मंज़र वहा पलने लगा है.
तहजीब है तन्हाई की अपनों के शहर में,
रिश्तों का सूरज अहले सुबह ढलने लगा है.
दोस्त इस दुनिया में जिसको कहते है "नूरैन",
वो लूट कर इस्मत यकीन का अब छलने लगा है.
फनकार - नूरैन अंसारी
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