आजकल न जाने किस सांचे में ढलते है लोग.
बहूत ही थके-थके है, फिर भी चलते है लोग.
अपनी खुश-नशिबी पर सब्र नहीं किसी को,
मगर गैरों की खुश-नशिबी देख, बहुत जलते है लोग.
है शराफत के आईने में हर चेहरे की अक्स फीकी,
तभी तो एक पल में सैकडों रंग बदलते है लोग.
आज होंठो पे मुस्कुराहट मुश्किल है देख पाना,
मगर हाँ,आँखों में आंसू लिए अक्सर मिलते है लोग.
वक़्त से जयादा किस्मत से पहले मिलता नहीं कुछ भी,
फिर लालची बन के हाथ अपना क्यों मलते है लोग?.
कोई देखता नहीं "अंसारी" दलदल में अपनी पांव को,
मगर बुलंदी असमान की छूने को, सभी उछलते है लोग.
आजकल न जाने किस सांचे में ढलते है लोग.
शायर : नूरैन अंसारी
Thursday, November 20, 2008
"आज का आदमी"
दरो-दायरा अपनापन का अब घटता जा रहा हैं.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
अब तो दिखती नहीं कही भी इंसानियत की तस्वीरे.
गला घोंट के वसूलों की बदली जाती है तकदीरें .
कौमी मुल्क जुबा के लहजे पे बटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
होंठों के मुस्कुराहट पे अब दिखती है साफ महंगाई.
एहसास करने लगे है लोग अपनों के बिच भी तन्हाई.
रस्मो-रिवाज़ गुजरे ज़माने का, पलटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
ऐसा कुछ रहा नहीं ज़माने में, हम करे जिस पे नाज़.
अब तो गूंजती नहीं चमन में भी बुलबुल की आवाज़.
"अंसारी" आईना शर्मो-हया का नजरो से,हटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
शायर :- नूरैन अंसारी
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
अब तो दिखती नहीं कही भी इंसानियत की तस्वीरे.
गला घोंट के वसूलों की बदली जाती है तकदीरें .
कौमी मुल्क जुबा के लहजे पे बटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
होंठों के मुस्कुराहट पे अब दिखती है साफ महंगाई.
एहसास करने लगे है लोग अपनों के बिच भी तन्हाई.
रस्मो-रिवाज़ गुजरे ज़माने का, पलटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
ऐसा कुछ रहा नहीं ज़माने में, हम करे जिस पे नाज़.
अब तो गूंजती नहीं चमन में भी बुलबुल की आवाज़.
"अंसारी" आईना शर्मो-हया का नजरो से,हटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
शायर :- नूरैन अंसारी
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