Thursday, November 20, 2008

"आज का आदमी"

दरो-दायरा अपनापन का अब घटता जा रहा हैं.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
अब तो दिखती नहीं कही भी इंसानियत की तस्वीरे.
गला घोंट के वसूलों की बदली जाती है तकदीरें .
कौमी मुल्क जुबा के लहजे पे बटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
होंठों के मुस्कुराहट पे अब दिखती है साफ महंगाई.
एहसास करने लगे है लोग अपनों के बिच भी तन्हाई.
रस्मो-रिवाज़ गुजरे ज़माने का, पलटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
ऐसा कुछ रहा नहीं ज़माने में, हम करे जिस पे नाज़.
अब तो गूंजती नहीं चमन में भी बुलबुल की आवाज़.
"अंसारी" आईना शर्मो-हया का नजरो से,हटता जा रहा है.
आज का आदमी खुद में ही सिमटता जा रहा हैं.
शायर :- नूरैन अंसारी

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