आजकल न जाने किस सांचे में ढलते है लोग.
बहूत ही थके-थके है, फिर भी चलते है लोग.
अपनी खुश-नशिबी पर सब्र नहीं किसी को,
मगर गैरों की खुश-नशिबी देख, बहुत जलते है लोग.
है शराफत के आईने में हर चेहरे की अक्स फीकी,
तभी तो एक पल में सैकडों रंग बदलते है लोग.
आज होंठो पे मुस्कुराहट मुश्किल है देख पाना,
मगर हाँ,आँखों में आंसू लिए अक्सर मिलते है लोग.
वक़्त से जयादा किस्मत से पहले मिलता नहीं कुछ भी,
फिर लालची बन के हाथ अपना क्यों मलते है लोग?.
कोई देखता नहीं "अंसारी" दलदल में अपनी पांव को,
मगर बुलंदी असमान की छूने को, सभी उछलते है लोग.
आजकल न जाने किस सांचे में ढलते है लोग.
शायर : नूरैन अंसारी
Thursday, November 20, 2008
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